बधाई हो बेटा हुआ है!

बेटा हो या बेटी – बधाई तो दोनों पर है!

बधाई हो बेटा हुआ है!” – यह वो वाक्य है जो आज भी ज़्यादातर भारतीय घरों की दीवारों से टकराकर गूंजता है। जैसे बेटा होना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि हो। जैसे बेटी के जन्म पर बधाई देना बस औपचारिकता हो।

ज़रा सोचिए, क्या इंसान होने की पहचान लिंग पर टिकी होनी चाहिए? बेटा पैदा हो तो मिठाई बंटे और बेटी पैदा हो तो घरवालों का चेहरा उदास क्यों हो जाता है?

बेटा-बेटी दोनों ही वरदान हैं

सच तो यह है कि बच्चा चाहे बेटा हो या बेटी, दोनों ही परिवार और समाज के लिए समान रूप से अनमोल हैं।

  • बेटे से उम्मीद होती है कि वह घर का सहारा बनेगा, नाम रोशन करेगा।
  • बेटी से उम्मीद होती है कि वह संस्कार लाएगी, रिश्ते जोड़ेगी।

लेकिन सच्चाई यह है कि ये गुण बच्चे के लिंग से नहीं, उसकी परवरिश से आते हैं।

व्यंग्य में छिपा सच

हमारे समाज में बेटा होने पर लोग कहते हैं –
“वाह! घर का दीपक आया है।”
पर जब बेटी होती है, तो वही लोग धीरे से कहते हैं –
“अरे… कोई बात नहीं, अगली बार बेटा हो जाएगा।”

क्या यह सोच हमें आगे ले जाएगी? या फिर यह हमें उसी पुराने अंधकार में बांधे रखेगी?

समय बदल रहा है

आज की बेटियां हर क्षेत्र में बेटे से कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं।

  • ओलंपिक में मेडल जीत रही हैं
  • सेना में परचम लहरा रही हैं
  • बिजनेस और टेक्नोलॉजी की दुनिया में नए कीर्तिमान बना रही हैं

तो फिर केवल “बेटा हुआ है” पर ही क्यों बधाई दी जाए?
क्यों न हर जन्म को उत्सव बनाया जाए – चाहे बेटा हो या बेटी?

असली बधाई किसे देनी चाहिए?

असली “बधाई” तो उस परिवार को देनी चाहिए जो अपने बच्चे को इंसानियत, शिक्षा और बराबरी के संस्कार देता है।
क्योंकि कल को वही बच्चा – चाहे लड़का हो या लड़की – समाज का भविष्य गढ़ेगा।

तो अगली बार जब कोई कहे “बधाई हो बेटा हुआ है!” तो आप मुस्कुराकर कहिए –
“बधाई तो हमें इसलिए है कि एक नया जीवन आया है, बेटा हो या बेटी – फर्क नहीं पड़ता।”

भारत की बड़ी जनसंख्या एक वरदान है, बशर्ते इसे सही दिशा मिले। और भारतीय परिवार में बेटे का जन्म केवल एक संतान का आगमन नहीं, बल्कि उम्मीद, परंपरा और भविष्य की सुरक्षा का प्रतीक है।

इसलिए जब किसी घर में आवाज़ गूँजती है – “बधाई हो बेटा हुआ है!”, तो यह न सिर्फ उस परिवार के लिए बल्कि समाज और संस्कृति के लिए भी नई शुरुआत का संकेत होता है।

भारत की जनसंख्या एक चुनौती है?

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है। अक्सर कहा जाता है कि भारत की जनसंख्या एक चुनौती है, लेकिन सच यह है कि यही जनसंख्या भारत की सबसे बड़ी शक्ति और संपत्ति भी है। जब यह विशाल जनसंख्या सही दिशा में प्रयत्न करती है, तो भारत को दुनिया का आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक नेता बना सकती है।

भारत की जनसंख्या के फायदे

1. भारत की युवा शक्ति – सबसे बड़ा संसाधन

भारत की लगभग आधी आबादी 30 साल से कम उम्र की है। यह युवा शक्ति मेहनत, उत्साह और नए विचारों से भरी है। यही कारण है कि भारत स्टार्टअप हब और आईटी इंडस्ट्री में तेजी से आगे बढ़ रहा है।

2. आर्थिक विकास का इंजन

ज्यादा जनसंख्या का अर्थ है ज्यादा काम करने वाले हाथ और ज्यादा उपभोक्ता। यही वजह है कि दुनिया की बड़ी कंपनियाँ भारत को सबसे बड़ा बाज़ार मानती हैं। इस प्रकार भारत की जनसंख्या के फायदे सीधे देश की अर्थव्यवस्था को मज़बूती देते हैं।

3. सांस्कृतिक विविधता – भारत की पहचान

भारत की विशाल जनसंख्या अलग-अलग भाषाओं, परंपराओं और त्योहारों को जीवित रखती है। यही विविधता भारत को दुनिया में सबसे अनोखा देश बनाती है।

4. वैश्विक नेतृत्व की क्षमता

इतनी बड़ी और ऊर्जावान जनसंख्या के बल पर भारत वैश्विक राजनीति, व्यापार और संस्कृति में नेतृत्व कर सकता है।

 

जीउतिया या जीवितपुत्रिका व्रत (Jiyutia / Jivitputrika Vrat)

जीउतिया या जीवितपुत्रिका व्रत (Jiyutia / Jivitputrika Vrat) मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला व्रत/त्योहार है। इसे खास तौर पर माताएँ अपने बच्चों (अधिकतर बेटों) की लंबी आयु, अच्छे स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना के लिए करती हैं।

क्यों मनाया जाता है?

  • माना जाता है कि इस दिन माताएँ कठोर व्रत करके अपने बच्चों की रक्षा और दीर्घायु के लिए प्रार्थना करती हैं। 
  • यह त्योहार ममता, त्याग और मातृ-भक्ति का प्रतीक है। 
  • समाज में यह एक सामूहिक पर्व भी है, क्योंकि औरतें साथ मिलकर पूजा करती हैं, लोकगीत गाती हैं और परंपराओं को आगे बढ़ाती हैं। 

पौराणिक कथा

इस व्रत की मुख्य कथा जिमूतवाहन (Jimutavahana) से जुड़ी है, जो सूर्य देव के वंश में जन्मे थे।

  • कथा के अनुसार, गरुड़ पक्षी नागों को खाता था। जिमूतवाहन ने स्वयं को बलिदान स्वरूप गरुड़ को सौंप दिया ताकि नागवंश बच सके। उनकी यह निस्वार्थ भावना और त्याग के कारण उन्हें आज भी पूजनीय माना जाता है। 
  • एक और लोककथा में गरुड़ (बाज़) और सियारनी (गीदनी) का प्रसंग आता है। गरुड़ की संतान उसकी माँ के व्रत के कारण सुरक्षित रहती है, जबकि सियारनी की संतान व्रत न करने की वजह से नष्ट हो जाती है। इसी से यह विश्वास मजबूत हुआ कि जीउतिया का व्रत बच्चों की रक्षा करता है। 

व्रत की विधि और परंपरा

यह व्रत सामान्यतः तीन दिन तक चलता है:

  1. नहाय-खाय (पहला दिन): महिलाएँ स्नान करके सात्विक भोजन करती हैं और अगले दिन निर्जला उपवास की तैयारी करती हैं। 
  2. निर्जला व्रत (दूसरा दिन): इस दिन माताएँ बिना पानी और भोजन के उपवास रखती हैं और भगवान जिमूतवाहन की पूजा करती हैं। 
  3. पारण (तीसरा दिन): व्रत खोलने का दिन, जब महिलाएँ नियमपूर्वक उपवास तोड़ती हैं। 

 संक्षेप में, जीउतिया पर्व मातृत्व के त्याग, बच्चों की दीर्घायु और सुरक्षा की कामना का प्रतीक है।

 

1. जिमूतवाहन की कथा

बहुत समय पहले सूर्यवंश में जिमूतवाहन नामक राजकुमार हुआ। वह बहुत ही दयालु और धर्मपरायण था। एक बार वह जंगल में गया तो उसने देखा कि एक बूढ़ा नाग बहुत दुखी होकर अपने बेटे को विदा कर रहा है। कारण पूछा तो पता चला कि गरुड़ देव रोज़ एक-एक नाग को खाने के लिए मांगते थे और आज उस बूढ़े नाग की बारी थी।

जिमूतवाहन को यह सुनकर करुणा आई। उसने सोचा – “मैं क्यों न इस नाग की जगह खुद को गरुड़ को दे दूँ? यदि एक की बलि से पूरी नाग जाति बच जाए, तो यह सच्चा धर्म होगा।”

वह स्वयं गरुड़ के सामने गया और बोला –
“हे गरुड़! इस नाग की जगह मुझे खा लीजिए।”

गरुड़ ने जब देखा कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं बल्कि एक वीर राजकुमार है, जो निस्वार्थ भाव से बलिदान देने आया है, तो उसका हृदय बदल गया। उसने प्रतिज्ञा की कि अब वह किसी भी नाग को नहीं खाएगा।

इसी कारण जिमूतवाहन को त्याग और बच्चों के रक्षक के रूप में पूजा जाता है। यह विश्वास है कि माताएँ अगर इस दिन कठोर व्रत रखें तो उनके बच्चों की उम्र और सुख-समृद्धि की रक्षा स्वयं जिमूतवाहन करते हैं।

2. गरुड़ और सियारनी (गीदनी) की कथा

दूसरी लोककथा भी जीउतिया पर्व से जुड़ी है।

कहा जाता है कि एक समय गरुड़ पक्षी और सियारनी (गीदनी) दोनों ने संतान जन्म दी। दोनों माताएँ अपने बच्चों के लिए चिंतित रहती थीं। गरुड़नी ने विधिपूर्वक जीउतिया व्रत किया और संतान की लंबी आयु की कामना की।

दूसरी ओर सियारनी ने व्रत को हल्के में लिया और ठीक से पालन नहीं किया।
परिणाम यह हुआ कि गरुड़ के बच्चे स्वस्थ और सुरक्षित रहे, जबकि सियारनी के बच्चे नष्ट हो गए।

तब से यह माना जाने लगा कि जो स्त्री श्रद्धा और नियमपूर्वक जीउतिया का व्रत करती है, उसकी संतान की रक्षा स्वयं देवता करते हैं।

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